गुरु नानक देव जी जन्माष्टमी साखी | Guru Nanak Dev Ji Janmashtami Sakhi
गुरु प्यारी साध संगत जी, क्या आपको पता है, गुरु नानक देव जी जन्माष्मी के दौरान वृन्दावन, मथुरा गए थे। और अगर आपको यह नहीं पता तो हम आपको आज की इस साखी में विस्तार से बताएंगे, की गुरु जी कब और कैसे वृन्दावन गए थे। उससे पहले अगर आप हमारे चैनल गुरु नानक साखी पर पहली बार आए है तो, चैनल को सब्सक्राइब करना बिलकुल ना भूलें। अगर इस साखी में आपको कुछ गलत लगे तो आप हमें कमेंट कर सकते है। परन्तु यह जानकारी हमें गुरु नानक जन्म साखी बुक से प्राप्त हुई है। आप सब कहेंगे तो हम उस बुक का लिंक कमेंट में दे देंगे। तो चलिए आज की यह साखी शुरू करते है।
सिख धर्म के प्रथम गुरु नानक देव जी धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए करीब 500 साल पहले वृंदावन आए। वह यहां गांधी नगर स्थित प्राचीन टीले पर ठहरे और और लोगों को भक्ति करते हुए सच्चा जीवन जीने का मार्ग दिखाया। तभी से इस पावन स्थल का नाम गुरुनानक टीला पड़ गया। वर्तमान में यहां भव्य गुरुद्वारा है। यहां अरदास के लिए सुदूर क्षेत्रों से सिख धर्म के अनुयायी आते हैं।
गुरु नानक टीला गुरुद्वारा के प्रभारी परमजीत सिंह ने बताया कि गुरु नानक देव जी सन् 1513 में अगस्त माह में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन वृंदावन आए थे। गुरु नानक देव जी ने अपने जीवन में चार उदासियां की थीं, इसमें से वह पहली यात्रा में वृंदावन आए थे। उनके साथ भक्त बाला और मरदाना भी साथ आए। टीले पर वह कुछ दिन ठहरे। इस दौरान वह संगत को परमेश्वर से जोड़कर मानवता का संदेश देते थे। यहां से उन्होंने जग को संदेश दिया कि परमेश्वर की भक्ति करते हुए सच्चा जीवन जीना चाहिए। वह इससे पहले मथुरा मसानी स्थित एक बगीची पर भी करीब एक माह से अधिक समय तक ठहरे। तभी से मसानी स्थित बगीची का नाम गुरुनानक बगीची पड़ गया।
यह भी बताया जाता है कि 18 जून 1707 ईसवीं सिख फौज की मदद से मुगल बादशाह बहादुर शाह की जीत हुई तो उसने सिख धर्म के 10वें गुरु, गुरु गोविंंद सिंह जी को धन्यवाद देने के लिए आगरा आने का निमंत्रण दिया था। बादशाह के निमंत्रण पर जब दिल्ली से आगरा के लिए गुरु गोविंद सिंह जी चले तो जुलाई 1707 को वह वृंदावन के इस पावन स्थान भी आए थे। इसका उल्लेख उनके दरबारी कवि सेनापति ने अपनी रचित पुस्तक श्री गुरु शोभा में सन 1711 में में किया। वृंदावन के पावन स्थल गुरु नानक टीला पर भक्तों द्वारा 2015 में भव्य गुरुद्वारा बनकर तैयार हुआ। वर्तमान में इस गुरद्वारे में धर्म प्रचार कमेटी शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी अमृतसर साहिब के द्वारा संचालित किया जा रहा है।
गुरुनानक बगीची प्रबंध समिति द्वारा बताया कि अगस्त 1513 में अपनी दूसरी उदासी के दौरान गुरु नानक देव जी मथुरा आए थे। उन्होंने यमुना किनारे गऊघाट पर प्रवास किया। यमुना में बाढ़ आने पर उन्होंने मसानी स्थित बगीची पर करीब 40 दिन से अधिक प्रवास किया। प्रवास के दौरान उन्होंने लोगों को शांति, सद्भाव और सामाजिक कुरीतियों को खत्म करने का संदेश दिया था। बाद में इसी स्थान को गुरद्वारे का रूप दिया गया। कहते हैं कि प्रवास के एक दिन बगीची पर संगत मौजूद थी। इसी बीच उन्हें किसी ने कुएं के खारे पानी के बारे में बताया। इस पर गुरु नानक देव ने करतार भली करेंगे कहते हुए मरदाना को कुएं का पानी निकालकर सबको बांटने को कहा। पानी बांटा गया तो वह मीठा था। तभी से कुएं का मीठा पानी सबके लिए प्रसाद बन गया।
गुरु प्यारी साध संगत जी, अभी हमने आपको बताया जब गुरु नानक देव जी वृन्दावन गए। परन्तु अब हम आपको यह भी बताते है, जब गुरु नानक देव जी और भाई बाला और मरदाना, एक पहाड़ी पर पहुंचे और एक विशाल पहाड़ को देख कर भाई बाला और मरदाना जी ने गुरु जी से यह प्रश्न किया की, यह पहाड़ यहाँ कैसे आया क्युकी आस पास कोई और पहाड़ नहीं है? तो चलिए आपको बताते है आगे गुरु जी ने क्या उत्तर दिया?
गुरु प्यारी साध संगत जी, ईश्वर के संदेश का प्रचार करते हुए, श्री गुरु नानक देव जी वृंदावना और मथुरा पहुँचे, जहां भगवान श्री कृष्ण का जन्म हुआ था। गुरुजी वहाँ एक पहाड़ी के पास बैठे थे। उनके शिष्य भाई मरदाना को आश्चर्य हुआ कि यमुना नदी के किनारे एक ही पहाड़ी कैसे है, जबकि उसके आसपास कोई ऐसी पहाड़ी नहीं थी। उन्होंने गुरुजी से इस रहस्य को सुलझाने के लिए कहा।
गुरुजी ने भाई बाला और मरदाना जी को बताया कि उस पहाड़ी का इतिहास त्रेता युग से है, जब श्री राम लंका जाने के लिए समुद्र पर एक पुल (राम सेतु) का निर्माण कर रहे थे। भाई मरदाना उत्सुक हो गए और उन्होंने गुरुजी से इतिहास के बारे में अधिक जानकारी देने का अनुरोध किया। गुरुजी ने आगे कहा, कि जब पुल का निर्माण पूरा हो गया, तो श्री राम ने वानर सेना को और अधिक पत्थर न लाने का निर्देश दिया। उनके आदेश का पालन करते हुए, सभी वानरों ने वे पत्थर फेंक दिए जो वे ले जा रहे थे। उस समय, हनुमान जी इस विशेष स्थान पर इस पहाड़ी को ले जा रहे थे। श्री राम के आदेश का पालन करते हुए, वे अपने सिर पर पहाड़ी को रखकर वहीं बैठ गए। सभी वानर अंततः श्री राम के पास गए, जिन्होंने महसूस किया कि हनुमान जी वहां मौजूद नहीं थे। वानरों ने उन्हें बताया कि आगे कोई पत्थर न लाने के उनके आदेश का पालन
श्री राम ने एक वानर से हनुमान जी को वापस लाने को कहा। उनकी आज्ञा मानकर वानर तुरन्त बृज की ओर चल पड़ा। वहाँ पहुँचकर हनुमान जी ने उसे बताया कि जब वह उस पर्वत को ले जाने आया था, तो उसके भीतर से एक आवाज़ आई, “हे हनुमान! कृपया मुझे यहाँ से न ले जाएँ। यदि आप मुझे ले जाना ही चाहते हैं, तो कृपया मुझे श्री राम के चरणों के पास रख दें। यदि ऐसा न हो सके, तो मैं यहीं ठीक हूँ।” यह आवाज़ सुनकर हनुमान जी ने पर्वत से वचनबद्ध होकर कहा कि वे उसे श्री राम के चरणों के पास रखेंगे।
श्री राम के आदेश के बाद हनुमान जी पूरी तरह असमंजस में पड़ गए। यदि उन्होंने पर्वत को वहीं रख दिया, तो वे अपना वचन तोड़ देंगे; और यदि उन्होंने उसे नहीं फेंका, तो वे श्री राम की बात का उल्लंघन करेंगे, जो वे नहीं करना चाहते थे। हनुमान जी की बात सुनकर वानर श्री राम के पास वापस गया और उन्हें सारी बात सुनाई। यह सुनकर श्री राम भावुक हो गए। उन्होंने कहा कि वे द्वापर युग में श्री कृष्ण का रूप धारण करेंगे और बृज में उस पहाड़ी पर और उसके आसपास अपना अधिकांश समय बिताएँगे। वानर ने जाकर श्री राम की बात हनुमान जी को बताई, जिन्हें सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने पहाड़ी को वहीं रख दिया और श्री राम के पास वापस लौट आए।
गुरु नानक देव जी ने बाला और मरदाना को बताया कि उस समय से वह पहाड़ी वहीं है। द्वापर युग में, श्री कृष्ण उस पहाड़ी के आसपास बहुत समय बिताते थे और वहीं अपनी लीलाएँ करते थे। गुरु नानक देव जी से यह इतिहास सुनकर बाला और मरदाना बहुत प्रसन्न हुए।
एक त्यौहार के दिन, उसी स्थान पर समारोह आयोजित हो रहे थे। विभिन्न विद्वान लोग समारोह में उपस्थित थे, जो अपना ज्ञान बाँट रहे थे, किन्तु उनके मन अहंकार और लोभ से भरे हुए थे। युवा वहाँ एक साथ नृत्य कर रहे थे, परन्तु उनमें से कई एक-दूसरे को वासना की दृष्टि से देख रहे थे। गुरुजी ने देखा कि वहाँ किसी की भी आत्मा शुद्ध नहीं थी, और सांसारिक बंधनों के कारण, उनके लिए अपने दुर्गुणों से मुक्त होना कठिन था। सभी को ईश्वर के नाम से जोड़ने के लिए, गुरुजी ने राग रामकली में निम्नलिखित शबद का उच्चारण किया
गुरुजी की मधुर वाणी सुनकर सभी लोग उनके चारों ओर एकत्रित हो गए। उनमें कुछ विद्वान भी थे, जिन्होंने गुरुजी से उनके कथन का अर्थ समझाने का अनुरोध किया। गुरुजी ने उन्हें समझाया कि सूर्य, चंद्रमा, तारे, धरती और वायु, ये सभी त्रेतायुग के समान ही हैं, परन्तु अब मनुष्य का मन दूषित हो गया है। सतयुग में यदि एक व्यक्ति पाप करता था, तो पूरा देश पापी माना जाता था। जबकि त्रेतायुग में पापी का नगर पापी माना जाता था। द्वापर युग में समय बदला, तब पापी के परिवार को ही दोषी माना जाता था। परन्तु कलियुग में यदि कोई पाप करता है, तो उसे स्वयं ही उसका फल भोगना पड़ता है। परन्तु यदि कोई व्यक्ति नाम जपने के बाद ईश्वर की कृपा प्राप्त करता है, तो वह इन सभी फलों से सुरक्षित रहता है। कलियुग में कीर्तन ही भक्ति का प्रमुख साधन है, इसलिए सभी को नियमित रूप से सत्संग में भाग लेना चाहिए और पूरे मन से ईश्वर का नाम जपना चाहिए। वृंदावन, मथुरा के इस पवित्र स्थान पर, जहाँ गुरुजी ने अपनी शिक्षाएँ प्रदान कीं, वहां आज गुरुद्वारा गुरु नानक टीला साहिब है।